imran bhai
हवा कुछ ऐसी चली है बिखर गए होते रगों में खून न होता तो मर गए होते
ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ
हम अपने शहर में होते तो घर गए होते
हमीं ने जख्मे -दिलो-जाँ छुपा लिए वरना
न जाने कितनों के चेहरे उतर गए होते
हमें भी दुख तो बहुत है मगर ये झूठ नहीं
भुला न देते उसे हम तो मर गए होते
सुकूने -दिल को न इस तरह से तरसते हम
तेरे करम से जो बच कर गुजर गए होते
जो हम भी उस से जमाने की तरह मिल लेते
हमारे शामो - ओ शहर भी संवर गए होते
(शायर अब तक अज्ञात )
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